"खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं"।
महात्मा गाँधी
गांधीजी के जन्मदिवस को संयुक्त राष्ट्र संघ प्रति वर्ष अहिंसा दिवस के रूम मे मनाता है जिसका अर्थ हिंसा को नकारना है| इस साल 2 अक्टूबर को उनकी 150वीं सालगिरह पर सम्पूर्ण विश्व भारत के साथ उनको याद करेंगा | पर एक प्रश्न उठता है की किस रूप में ? जहां एक ओर भूख, गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याएं समाप्त नहीं हुई है वही हिंसा का बढ़ता प्रयोग चिंता का विषय है|
गांधीजी पिछड़ों के विकास के लिए काम करते थे और समाज में उनके साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए हमेशा अपनी मासिक पत्रिका में लिखते थे लेकिन अफ़सोस आज भी गांधीजी का हरिजन भेदभाव से परेशान है| स्वतंत्र भारत की कोशिश इसी भेदभाव को कम करने से शुरू हुई थी, लेकिन आज हम इससे एक अलग रास्ते पर भटक रहे हैं|
गांधीजी महिलाओं के विकास और उनके सशक्तिकरण के लिए हमेशा बात करते थे उन्होंने बाल विवाह पर शारदा अधिनियम से दी गई उम्र को बढ़ाने की पेशकश की और कहा कि ‘यह सीमा 16 या 18 साल तक बढ़ा देनी चाहिए।’इसके साथ ही कहा कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को जला देना जागरुकता की निशानी नहीं बल्कि अज्ञानता की निशानी है। ऐसे ही दहेज प्रथा को भी मूल्यांकित करते हुए कहा कि ‘जब तक शादी को जाति प्रथा से जोड़ते रहेंगे तब तक दहेज प्रथा हमारे समाज में बनी रहेगी।’
जब 1921 में महिलाओं के मताधिकार का मुद्दा उठा तो उन्होंने इसका पूरा समर्थन किया और ये तर्क दिया कि दांडी मार्च की सफलता में महिलाओं की उत्साहपूर्ण व सक्रिय भागीदारी की निर्णायक भूमिका निभाई थी। महात्मा - गाँधी को यह भलीभाँति ज्ञात था कि अगर किसी देश की आधी जनता देश के बड़े आंदोलन से दूर रहेगी तो देश का आंदोलन कभी सफल नहीं हो सकता|
आज जहाँ बड़े से बड़ा अपराध करके भी लोग बचने के लिए हजारों उपाय करते है वह गांधीजी ने अपने चंपारण दौरे के दौरान वहां के जिला अधिकारी द्वारा भेजे नोटिस (जिसमे लिखा था आप से अशांति का खतरा है और आपको ये स्थान छोड़ कर जाना होगा) के जवाब में अदालत में कहा की वह अपने ही देश में कही आने-जाने और काम करने की बंदिश को नहीं मानेंगे लेकिन जिला अधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने की गलती की है तो सज़ा की मांग जरुर करता हूँ उनके इस जवाब पर न्यायालय भी सोच में पड़ गया की यह कैसा अपराधी है जो बचने की जगह खुद के लिए सज़ा की मांग कर रहा है|
2 अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा था, ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ गांधी जी की मृत्यु पर लिखे संदेश में आइंस्टीन ने कहा था, ‘लोगों की निष्ठा राजनीतिक धोखेबाजी के धूर्ततापूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है’|
भारत सरकार की मनरेगा और स्वच्छता अभियान गाँधीवादी विचारों के बेहतरीन उदाहरण है जहां उनकी झलक मिलती है, मनरेगा के जरिएं एक तरफ देश में गरीबी कम करने में मदद मिली है वही स्वच्छता अभियान ने लाखों लोगों के जीवन को गंदगी मुक्त किया है खास कर ग्रामिण क्षेत्रों को और हमें इसी तरह कि योजनाओं कि जरूरत है भविष्य में भी गांधीजी के विचारों को जीवित रखने के लिए|
गांधीजी के शब्दों में ‘किसी देश की संस्कृति लोगों के दिलों में और आत्मा में निवास करती हैं’| यहीं हमारी असल पहचान भी है| क्या भारत की आने वाली पीढ़िया गांधीजी को केवल कागज के नोट पर देखेंगी और जानेंगी या उनके विचारो से भी परिचित भी होंगी ये पूरी तरह हम पर निर्भर करता है
गांधीजी के शब्दों में ही कहना उचित होगा कि ‘हो सकता है हम ठोकर खाकर गिर पड़ें पर हम उठ ‘हो सकता है हम ठोकर खाकर गिर पड़ें पर हम उठ सकते हैं; लड़ाई से भागने से तो इतना अच्छा ही हैं’। हमे दूसरों को उपदेश देने से पहले ये समझना होगा की गांधी दूसरों को कोई भी उपदेश देने से पहले उसे पहले स्वयं पर आजमाते थे। गांधीजी सच्चाई और अहिंसा उनके हथियार थे लेकिन आज हमारे अन्दर सच्चाई को स्वीकार करने की क्षमता खत्म होती जा रही हैं|
आज का दिन इस देश के ऐसे प्रधानमंत्री के जन्मदि न के रूप में भी याद किया जाता है जो कोई भी सुझाव देने से पहले खुद से और अपने परिवार से उसकी शुरुआत करते थे, फिर वो सूखे और गरीबी की मार झेलते भारत में एक दिन के उपवास की बात क्यूँ न हो| लाल बहादुर शाष्त्री जी के इसी आचरण ने उन्हें गांधीजी के करीब ला खड़ा किया था |
गांधीजी सभी को साथ लेकर चलने की बात करते थे वह एक ऐसे समाज की रचना के पक्षदार थे जहां धर्म, जाति वर्ण, भाषा आदि के नाम पर कोई भेदभाव न हो सबको आगे बढ़ने का समान अवसर मिले आज भारत को इसी दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है और यही सच्चे अर्थों में गांधीजी के लिए हमारा सम्मान होगा |