स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी : एक छुपी हुई दिव्यांगता

Teacher

Seeta

Asst. Coordinator Cum Researcher

वर्तमान में सभी के लिए शिक्षा के प्रयास के तहत स्पेशल एजुकेशन के कांसेप्ट को बल मिला है, लेकिन लोगों में अभी भी जागरूकता की कमी है। स्पेशल बच्चे कौन है और डिसेबिलिटी के कितने प्रकार हैं आदि के बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं है या फिर कम जानकारी है। शारीरिक विकलांगता को देख कर फिर भी पहचाना जा सकता है लेकिन मानसिक मंदता (Mental Retardation) और लर्निंग डिसेबिलिटी से लोग अब भी अनजान है।

आसान शब्दों में समझा जाये तो लर्निंग डिसेबिलिटी दो अलग-अलग शब्दों लर्निंग और डिसेबिलिटी से मिलकर बना है, लर्निंग शब्द का मतलब है सीखना तथा डिसेबिलिटी से मतलब है कमी अर्थात सीखने की एबिलिटी में कमी है| सीखने की कमी एक न्यूरोलॉजिकल यानि तंत्रिका तंत्र से जुड़ी प्रॉब्लम है जो संदेश भेजने, ग्रहण करने और उसे प्रोसेस करने की मस्तिष्क की क्षमता या योग्यता को प्रभावित करती है। सीखने की कमी से जूझ रहे बच्चे को पढ़ने, लिखने, बोलने, संवेग, समझने, गणित के सवाल और फ़ॉर्मूला को समझने, तर्क और सामान्य कॉन्सेप्ट्स आदि को समझने में समस्या आ सकती है। कई बार देखा गया है कि लर्निंग डिसेबिलिटी के साथ-साथ बच्चों में ADHD (Attention Deficit Hyperactivity Disorder) 12% से 24% तक पायी जाती है।

लर्निंग डिसेबिलिटी के इतिहास ने अपना वर्तमान स्वरुप ग्रहण करने के लिए एक लंबा सफर तय किया है। सबसे पहले इसका प्रयोग 1963 ई. सैमुअल किर्क ने किया था। आज इसे स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसमें कोई एक विकार(Disorder) न होकर यह विकारों का समूह है।

लर्निंग डिसेबिलिटी किसी भी प्रकार का सुनने, देखने की प्रॉब्लम, मानसिक मंदता (Mental Retardation), आटिज्म (Autism), बिहेवरल (Behavioural) समस्या नहीं है। बल्कि सीखने की यह समस्या कई कारणों से होती है जैसे: आनुवंशिकी (Genetics), पर्यावरणीय (Environmental) और जैविक (Biological) कारण है।

लर्निंग डिसेबिलिटी के प्रमुख प्रकार

डिस्लेक्सिया (Dyslexia): पढ़ने से जुड़ी समस्या (शब्दों को रुक-रुक कर पढ़ना, आवाज़ में अंतर ना कर पाना, शब्दों का हेर-फेर या छोड़ना, शब्दों को पहचानने-पढ़ने में दिक्कत, स्पेलिंग में दिक्कत आदि)

डिसकेलकुलिया (Dyscalculia): गणित से जुडी समस्या (अंकों का हेर -फेर, अंकों-प्रतीकों को पहचानने, गणितीय कांसेप्ट, संकेतों को, जोड़ने-घटाने में गलती, दाएं बाएं में, फ़ॉर्मूला आदि को याद करने में समस्या,  इक्वेशन को क्रमवार हल करने में समस्या आदि)

डिसग्राफिआ (Dysgraphia): लिखने से जुडी समस्या (अक्षरों को टेढ़े-मेढ़े बनाना, वर्तनी अशुद्धि, पेन को अजीब ढंग से पकड़ना या पकड़ने में दिक़्क़त, लिखते वक्त हाथ में दर्द की शिकायत करना, लिखते वक्त जरूरत से ज्यादा झुक कर लिखना आदि।)

डिस्प्रेक्सिआ (Dyspraxia):बच्चे को फाइन और ग्रॉस मोटर स्किल में समस्या होती है, जैसे पेंसिल, कैंची, बॉल आदि पकड़ना, चित्र बनाना, बटन बंद करना, आँखों और हाथों के कोआर्डिनेशन में समस्या आदि।

ऑडिटरी प्रोसेसिंग डिसॉर्डर(Auditory Processing Disorder): आवाज़ को सुनने व अंतर करने में दिक्कत, गद्य व भाषा आदि में दिक्कत।

विजुअल प्रोसेसिंग डिसॉर्डर(Visual Processing Disorder): चित्रों, प्रतीकों, मानचित्रों आदि को समझने में समस्या आदि।

 लर्निंग डिसेबिलिटी को आमतौर पिछड़े बालक (Backword Child), स्लो लर्नर (Slow Learner) अथवा मानसिक मंदता (Mental Retardation) समझ लिया जाता है पर यह इन तीनों से ही अलग् समस्या है। तथा इनकी परिभाषा इस अंतर को समझने में मदद करती है। इन बालकों का IQ औसत या औसत से अधिक होता है जबकि उपरोक्त में औसत से कम होता है। इस डिसेबिलिटी की वजह से बच्चे को आलसी, नालायक, बुद्दू, बेवकूफ आदि कह कर बुलाया जाता है। जिसका उनकी मानसिकता (Mentality) पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है जिस की वजह से आमतौर पर या तो स्कूल इन्हें मजबूर करता शिक्षा छोड़ने पर है या वह स्वयं ही स्कूल छोड़ देते है। भारत में अभिषेक बच्चन, और बोमन ईरानी जैसे मशहूर कलाकार भी इस डिसेबिलिटी से पीड़ित है परन्तु इन्होंने अपनी भीतर की क्रिएटिविटी को उभार कर समाज में अपनी नई पहचान बनाई है।

भारत में इस संबंध में कार्य शुरू हुए अभी बहुत कम समय हुआ है क्योंकि शुरुआत में ही इसे भारत में पश्चिमी देशों की अंग्रेजी भाषा से जुड़ी समस्या के रूप में देखा जाता था लेकिन धीरे–धीरे भारत में भी जागरूकता बढ़ रही है। आज़ादी के बाद से ही, भारत में इंक्लूसिव एजुकेशन के क्षेत्र में समय के साथ कई प्रोग्राम, नीतियां, क़ानून व योजनाएं बनाई है; जिसमें कोठारी कमीशन की रिपोर्ट, सर्व शिक्षा अभियान (SSA), पी डब्लू डी कानून (PWD), विकलांग व्यक्तियों के अधिकार विधेयक (RPWD) आदि है। वर्तमान भारत में सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएँ (NGO’s) इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।

भारत में लर्निंग डिसेबिलिटी से ग्रस्त बालकों के आकड़ों की बात करें तो ठीक-ठाक आंकड़ें बताना मुश्किल कार्य है, क्योकि इसपर काम शुरू हुए अभी बहुत कम समय हुआ है। चेन्नई में आयोजित सम्मेलन लर्न 2012 में विशेषज्ञों ने कहा कि भारत में लगभग 10% बच्चे लर्निंग डिसएबल (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, जनवरी 27,2012) हैं। एक रिसर्च के अनुसार भारत में 1% से 19% फीसदी बच्चे लर्निंग डिसएबल (अप्रैल 2018) है। एक अन्य रिसर्च के अनुसार, भारत 56% अध्यापकों को इस डिसेबिलिटी के बारे में पता ही नहीं है, और केवल 2% अध्यापकों के पास ही अच्छी समझ है। एक अन्य रिसर्च के अनुसार, पर्यावरणीय कारणों की वजह से हर साल अधिगम अक्षम बच्चों की संख्या 10% बढ़ रही है। इसके लिए जरूरी है कि भारत में बड़े पैमाने पर, इस क्षेत्र में जागरूकता व रिसर्च वर्क की जाएँ।

आमिर खान की फिल्म ”तारे जमीन पर” जिसने इस समस्या को बड़ी ही संवेदनशीलता  (Sensitivity) के साथ आम जनता तक पहुंचाया परन्तु इस फिल्म के 9 साल बाद लर्निंग डिसेबिलिटी को “विकलांग व्यक्तियों के अधिकार विधेयक” (Rights of person with Disability Act) 2016 में क़ानूनी मान्यता मिली। (इस विधेयक ने सरकारी नौकरी में 4% आरक्षण, संरक्षकता, वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए स्टेट सेंटर फण्ड, 6 और 18 वर्ष मुफ्त शिक्षा का अधिकार, शिकायत निवारण एजेंसी, परीक्षा के दौरान केलकुलेटर का इस्तेमाल, राईटर उपलब्ध करना, डिसेबिलिटी सर्टिफिकेट सुविधा आदि जैसे प्रावधान है)।

भारत में प्राचीन काल से ही शिक्षा का महत्व देखने को मिलता है, जैसे गुरुकुल प्रथा, मेकाले की शिक्षा नीति व राष्ट्रीय सुरक्षा में शिक्षा का महत्व या फिर विष्णु शर्मा द्वारा रचित पंचतंत्र में समावेशी शिक्षा का आधार, इसी के महत्त्व को देखते हुए भारत ने 86 वां संशोधन के द्वारा शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किया था। इसलिए समय कि मांग को देखते हुए भारत में नई शिक्षा नीति (2019) को लागू किया गया है, (विशेष स्कूल व ओपन स्कूल, चिकित्सक व विशेष शिक्षक की नियुक्ति, छात्रवृति, आईसीटी (ICT) का प्रसार, स्कूल की  पाठ्यचर्या व शिक्षणशास्त्र का पुनर्गठन तथा टीचर्स के भी पाठ्यचर्या की व्यवस्था, शिक्षा से जुड़े विभिन्न मंत्रालयों, विभागों व आयोगों, के बीच समन्वय आदि के प्रावधान है) और जिसे हाल में ही  केबिनेट में मंजूरी भी मिल चुकी है ।

 इस डिसॉर्डर के कारण वश बच्चा स्कूली शिक्षा के साथ-साथ व्यवसाय में भी पिछड़ जाता है। जागरूकता के कमी के कारण कुछ बच्चों में इस समस्या का जीवनभर पता नहीं चलता अतः जरूरत है कि सबसे पहले माता-पिता और सामान्य अध्यापक को भी इस डिसेबिलिटी का ज्ञान कराया जाएँ क्योकि यही बच्चे की वृद्धि और विकास (Growth and Development) के चरणों को सबसे करीब से देखते है और असामान्यता को पहचान सकते है। वर्तमान में लॉकडाउन जैसी स्थिति में अति गंभीर लर्निंग डिसेबल्ड बच्चों को बिना स्पेशल टीचर के घर पर रखना, अचानक रूटीन लाइफ में बदलाव, आर्थिक समस्या और विशेषज्ञों की अनुपस्थिति ने परिवारों की मुश्किलों को और बढ़ाया है। भविष्य में खासकर इन बच्चों के माता-पिता को ऐसी आपातकालीन समय के लिए ट्रेनिंग देकर तैयार कराया जाएँ ताकि वह बच्चों को घर पर संभाल सकें तथा इन बच्चों के लिए इंटरनेट भी कोई खास भूमिका नहीं निभा पा रहा है। अतः सरकार को भविष्य में इसके लिए वैकल्पिक सुझावों के लिए भी तैयार रहना होगा।

स्पेसिफिक लर्निंग डिसेबिलिटी के क्षेत्र में अभी भी जागरूकता, सही वक्त पर पहचान, लर्निंग डिसेबिलिटी के लिए राष्ट्रीय नीति, विशेष स्कूलों का निर्माण, प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति, टेलेंट पहचान, वोकेशनल कोर्सेज, सरकार और गैर सरकारी संगठनों की एक्टिव भागीदारी, नीति निर्माण में इनकी भागीदारी तथा स्पेशल सेल की स्थापना की जरूरत है। तथा सबसे जरुरी है, कि बच्चों की जरूरत व सीखने के तरीके के अनुसार के अनुसार टूल्स, तकनीक, स्ट्रैटेजी व इंटरवेंशन को अपनाकर उसे शिक्षा प्रदान कराई जाये।

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